षट्तिला एकादशी पूजा विधि एवं महत्व :
यह व्रत (षट्तिला एकादशी ) माघ मास की कृष्ण पक्ष एकादशी को किया जाता है । इसके अधिष्ठाता देव भगवान विष्णु है । पंचामृत में तिल मिलाकर भगवान को स्नान कराये । इस प्रकार जो मनुष्य जितने तिलों का दान करता है वह उतने ही सहस्त्र वर्ष स्वर्ग में वास करता है । तिल मिश्रित पदार्थ को स्वयं खाएं तथा ब्राह्मणों को खिला दे । दिन में हरी कीर्तन कर रात्रि में भगवान की मूर्ति के सामने सोना चाहिए । छह प्रकार के तिल प्रयोग होने के कारण इसे “षट्तिला एकादशी” के नाम से पुकारते हैं । इस प्रकार नियम पूर्वक पूजा करने पर बैकुंठ लोक की प्राप्ति होती है और सदा सौभाग्य प्राप्त होता है ।
षटशिला एकादशी पारण :
25 जनवरी 2025, शनिवार को षटतिला एकादशी
26 जनवरी को पारण का समय- 07:12 AM से 09:21 AM तक
पारण दिवस द्वादशी समाप्ति क्षण – रात्रि 08:54 बजे
एकादशी तिथि प्रारंभ – 24 जनवरी 2025 को शाम 07:25 बजे से
एकादशी तिथि समाप्त – 25 जनवरी 2025 को रात्रि 08:31 बजे
जब व्रत पूरा हो जाता है और व्रत को तोड़ा जाता है उसे पारण कहते है । एकादशी व्रत के अगले दिन सूर्योदय के बाद एकादशी का पारण किया जाता है। पारण द्वादशी तिथि के भीतर करना आवश्यक होता है ,जब तक कि द्वादशी सूर्योदय से पहले समाप्त न हो जाए। द्वादशी के भीतर पारण न करना अपराध के समान माना जाता है |
हरि वासर के दौरान पारण नहीं करना चाहिए। व्रत तोड़ने से पहले हरि वासर खत्म होने का इंतजार करना चाहिए। हरि वासर द्वादशी तिथि की पहली एक चौथाई अवधि है। संस्कृत की प्राचीन भाषा में, हरि वासर को भगवान विष्णु से संबंधित दिव्य समय के रूप में प्रतिध्वनित किया जाता है (हरि: विष्णु का एक विशेषण; वासर: ब्रह्मांडीय घंटा)। एकादशी तिथि के दौरान, पवित्र हरि वासर प्रकट होता है, जो भगवान विष्णु की पूजा के लिए समर्पित है।
व्रत तोड़ने का सबसे पसंदीदा समय प्रातःकाल है। मध्याह्न के दौरान व्रत तोड़ने से बचना चाहिए। यदि किसी कारणवश कोई व्यक्ति प्रातःकाल में व्रत नहीं खोल पाता है तो उसे मध्याह्न के बाद व्रत करना चाहिए।
कभी-कभी लगातार दो दिनों तक एकादशी व्रत रखने का सुझाव दिया जाता है। यह सलाह दी जाती है कि समर्था को परिवार सहित केवल पहले दिन उपवास करना चाहिए। जब स्मार्थ के लिए वैकल्पिक एकादशियों के उपवास का सुझाव दिया जाता है तो यह वैष्णव एकादशियों के उपवास के दिन के साथ मेल खाता है।
भगवान विष्णु के प्रेम और स्नेह की तलाश करने वाले कट्टर भक्तों को दोनों दिन एकादशियों का उपवास करने का सुझाव दिया जाता है |
षट्तिला एकादशी व्रत की कथा :
प्राचीन काल में वाराणसी क्षेत्र में एक गरीब अहीर रहता था । दीनता से काहिल वह बेचारा कभी-कभी भूखा ही बच्चों सहित आकाश में तारे गिनता रहता । उसकी जिंदगी बसर करने का सहारा केवल जंगल की लकड़ी थी । वह भी जब ना बिकती तो दुखी होकर घर वापस आ जाता । एक दिन वह किसी साहूकार के घर लकड़ी पहुंचाने गया । वहां जाकर देखता है कि किसी उत्सव की तैयारी हो रही है । जानने की उत्कट इच्छा होने से वह साहूकार से पूछ बैठा – ” बाबूजी ! यह किस चीज की तैयारी हो रही है ?”
तब सेठ जी बोले – ” यह षट्तिला एकादशी व्रत की तैयारी हो रही है । इससे घोर पाप , रोग , हत्या आदि भव बंधनों से छुटकारा मिल जाता है तथा धन एवं पुत्र की प्राप्ति होती है ।” यह सुनकर अहीर घर जाकर उस दिन के पैसों का सामान खरीद लाया और एकादशी का विधि वध व्रत रखा । परिणाम स्वरुप वह कंगाल से धनवान हो गया और वाराणसी नगरी में एक विशिष्ट व्यक्ति के रूप में सम्मानित किया जाने लगा ।